Friday, 14 February 2014

श्री रामचरित मानस


 श्री रामचरित  मानस
उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥
सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥1॥


भावार्थ:-दोनों (संत और असंत) जगत में एक साथ पैदा होते हैं, पर (एक साथ पैदा होने वाले) कमल और जोंक की तरह उनके गुण अलग-अलग होते हैं। (कमल दर्शन और स्पर्श से सुख देता है, किन्तु जोंक शरीर का स्पर्श पाते ही रक्त चूसने लगती है।) 
साधु अमृत के समान (मृत्यु रूपी संसार से उबारने वाला) और असाधु मदिरा के समान (मोह, प्रमाद और जड़ता उत्पन्न करने वाला) है, 
दोनों को उत्पन्न करने वाला जगत रूपी अगाध समुद्र एक ही है। (शास्त्रों में समुद्रमन्थन से ही अमृत और मदिरा दोनों की उत्पत्ति बताई गई है।)॥1॥ 
उसी तरह हमारे जीवन में सुख दुःख एक साथ रहते हैं. हमें इनमें ही सम्माहित होकर अपना जीवन व्यतीत करना है। दोनों को सम रूप से एक साथ लेकर चल सकें इस लिए हमारे हिन्दू धर्म में आदर्श की बात कही गई है। बिना आदर्श के बिना प्रत्यक्ष उदाहरण के जीवन की पेचीदगियों को समझ पाना आसान नहीं होता।